" मिस! मिस! छाया ने विदुषी का दाँत तोड़ दिया!"
घबरा कर मंशा कॉरिडोर में पहुँची। विदुषी नाम की लड़की गला फाड़ फाड़ कर रो रही थी।
" ये क्या किया तुमने, छाया?", मंशा ने छाया से सख्ती से पुछा।
अपने हाथ में रुमाल से पकड़े हुए एक टूटे हुए दाँत को हवा में लहराते हुए छाया बोली, " मेरी कोई गलती नही है मिस। मैं तो बस उसे दिखा रही थी की दूध के दाँत को कैसे तोड़ते हैं।"
छाया की इन्ही हरकतों से मंशा झल्ला चुकी थी, " अभी चलो मेरे साथ प्रिंसिपल के ऑफिस में! इस उजड्ड लड़की पे तो उसका भी असर नही होता। नजाने कैसे घर वाले हैं। नोट पे नोट लिख कर भेजो, बेशर्मी से साइन करके वापस भी भेज देते हैं। अपने मम्मी पापा को बुला के लाना कल!"
विदुषी का रुदन सुन कर अब कॉरिडोर की सभी क्लासों के बच्चे बाहर आ गए थे। अक्सर क्लास में बैठे बोर होते हुए बच्चे इसी उम्मीद में रहते की कब छाया कुछ फसाद मचाये और हम तमाशा देखने बाहर जाएँ।
मंशा ने हर बार की तरह छाया की डायरी में उसकी शरारतों के बारे में नोट लिखा। लेकिन इस बार उसके माता पिता से स्कूल आ कर उससे मिलने का आग्रह भी किया। फिर चीखती हुई विदुषी को दवाइयों वाले कमरे में ले गई। इस तरह एक और दिन का अंत हुआ ।
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" साम , दाम, दंड , भेद! आपकी बच्ची पर तो किसी का असर नही होता ! कल ही एक बच्ची का दाँत तोड़ दिया! वो भी पक्का दाँत! उसके माँ-बाप ने कैसा बवाल मचा दिया कोई अंदाजा भी है आपको? अब मैं क्या जवाब दूँ? मेरी तो नौकरी पर ही बन आई है। सारा दिन क्या एक ही बच्ची को नज़रबंद करने का ज़िम्मा ले रखा है मैंने? आठ साल की बच्ची ने तीस-पैंतीस साल की टीचरों की हवाइयाँ उड़ा रखी हैं!", मंशा छाया की माँ, नियति , से पिछले बीस मिनटों से उसकी शिकायत कर रही थी।
और पिछले बीस मिनटों से नियति के मन में बस एक ही बात चल रही थी- "हे भगवान्। जल्दबाजी में मैं गीज़र तो खुला ही छोड़ आई। ये अगर घर आ पहुँचे तो कोहराम मचा देंगे। कल ही सब्जी में नमक ज़्यादा पड़ गया था। ये सच ही कहते हैं। मैं इतनी गैर जिम्मेदार हूँ। तभी तो छाया..."
"... तभी तो छाया को अपनी गलतियों का एहसास होगा।" कुछ सुझाव देते हुए मंशा ने अपनी बात पूरी की ।
" जी मैडम। अब आगे से ध्यान रखूंगी। अभी मैं जल्दी में हूँ। घर पे कुछ काम अधूरा ही छोड़ के आई हूँ।" नियति ने गीज़र के बारे में सोचते हुए कहा।
"इसके पापा क्यूँ नहीं आए?" मंशा ने हड़बड़ी में जाती हुई नियति से पुछा।
"वो... वो उन्हें कुछ ज़रूरी काम था । " नियति ने बहाना बनाया। वो कैसे बताती कि उसने पावक को बताया ही नहीं ? कभी भी नहीं। कि आज तक सारे नोट्स पर साइन भी उसी ने किए थे। कितना गैर जिम्मेदार समझेंगे वो उसे । वैसे भी कल सब्जी में नमक ज़्यादा पड़ गया था।
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दस सालों में कितना कुछ बदल जाता है। जितनी बार ये दुनिया गोल घूम चुकी होती है उतनी बार परिस्थितियाँ बदलती हैं, उतनी बार सपने बदलते हैं, उतनी बार अपने बदलते हैं। खुशियाँ कभी कभी त्रासदी बन जाती हैं... और त्रासदी समय के साथ एक मज़ाक! बस रह जाती है तो एक उम्मीद। क्यूँकी उम्मीद की बुनियाद पे ही तो दुनिया गोल घूमती है।
उस दिन , सड़क के किनारे , बस स्टाप की बैंच पे बैठे बैठे नजाने कितने घंटे बीत गए होंगे। घर जाती तो फिर वही आईना दीखता जिसमे वो दोनों अपनी शक्लें साथ साथ देखते और कहते "हैं न हम बिल्कुल मेड फॉर ईच अदर?" ; फिर वही बालकनी दिखती जहाँ रात रात भर बैठ कर वो उससे फ़ोन पे बातें करती। अब वो घर दोबारा कैसे जाएगी? ये सब कुछ सोच ही रही थी की सामने एक गाय दिखी। दिल्ली की सडकों पर गाय दिखना भी एक अजूबा ही है। M.C.D की वैन्स को इन बेचारियों से कुछ खासा ही लगाव है। उस दिन मानो वो गाय भी भगवान् की ही भेजी हुई थी। दुर्बल सी गाय, जिसकी पसलियाँ बाहर दीख रहीं थीं, इतनी दुर्बल होते हुए भी अपने छोटे से बछडे को दूध पिला रही थी। क्या खाती होगी जिसका ये दूध बन पाता होगा ये तो अल्लाह ही जानता है। ख़ुद अन्दर से लगभग खाली है लेकिन जितना दूध उसका बछडा खींचता उतना दूध उसके थनों में भर आता। वाकई आश्चर्यजनक है।
"क्या वाकई इतना आश्चर्यजनक है?" उसने सोचा। "क्या ये सच नही कि कुदरत ने हम सबको एक ऐसी ही ताक़त दी है? कि हम अन्दर से खाली होने के बाद भी कुछ चीज़ें दूसरों को दे सकते हैं और ऐसा करने से वो चीज़ें हम में वापस भरने लगती हैं?"
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पावक मिश्रा। पिता का नाम पावक मिश्रा। मंशा को मानो साँप सूँघ गया हो।
उसने झट से नम्बर देखा-9425311709
नम्बर के आखिरी चार अंक 1709 थे । पावक अपने नंबरों के आखिरी चार अंक 1709 ही रखता था। सत्रह सितम्बर- उसका जन्मदिन।
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"हैलो?"
"मंशा, कहाँ रह गयीं तुम? कोई ख़बर नही। सुबह से फ़ोन लगाते लगाते आफत आ गई।", प्रिंसिपल की आवाज़ दूसरी तरफ़ से गरज रही थी। "छाया ने यहाँ बवाल मचा रखा है। दो बच्चियों के टिफिन छीन कर खिड़की से बाहर फेंक दिए। जल्दी आओ!"
" बाप पर जो गई है", मंशा ने मन ही मन सोचा
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" मेरी गलती नही है मिस। सब इसी की गलती है। इससे पूछो इसने मेरा कहना क्यूँ नही माना?", छाया ने अपनी सफाई दी।
"कौनसा कहना?", मंशा ने पूछा।
" जब मैंने कहा कि अपने टिफिन से एक रोटी चम् चम् को दे दे तो दी क्यूँ नही?"
"चम् चम्?", मंशा का सर घूम रहा था।
"मिस, चम् चम् वो गन्दे, काले कुत्ते का नाम है जो नीचे गार्ड अंकल के बूथ के पास बैठता है।" विदुषी ने पुराना बदला लेने की एक कोशिश करते हुए कहा।
एक दिन छाया क्लास लेट पहुँची। जब मंशा ने लेट आने का कारण उससे पूछा तो उसने मुँह चिढ़ा कर अपनी गर्दन फेर ली। छाया के लिए ऐसा करना आम बात थी लेकिन मंशा के सब्र का घड़ा भर चुका था, और उस दिन उसने अपने अध्यापन कार्यकाल में पहली बार किसी बच्ची पर हाथ उठाया। गुस्से से तिलमिलाती मंशा तेज़ी से क्लास से बाहर स्टाफ रूम को बढ़ी। क्लास रूम से स्टाफ रूम के छोटे से सफर में उसके हाथों की कम्पन और गालों के फड़कने की वजह गुस्से से बदल कर पश्चात्ताप हो रही थी। स्टाफ रूम में घुसते ही दरवाज़ा बंद किया। सौभाग्य से वहाँ कोई नही था। दस सालों बाद वो फूट फूट के रो रही थी।
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" मैं पापा को बताऊंगीSSS! तुमने मुझे माराSSS! वो तुमको खूब मारेंगेSSS!", छाया अपने आप को टॉयलेट में बंद कर के ज़ोर ज़ोर से दहाड़ रही थी।
"छाया ... बेटा ... दरवाजा खोलो... तुम अच्छी बच्ची हो ना ?" मंशा ने उसे बहलाने की कोशिश की।
" मैं अच्छी बच्ची नही हूँ SSS! मैं अच्छी बच्ची नही हूँ SSS!"
" अरे नहीं बेटा। किसने कहा तुम अच्छी बच्ची नहीं हो?"
तपाक से जवाब आया, "सबने SSS... तुमने , प्रिंसिपल मैम ने, पापा ने SSS"
मंशा के दिल की एक धड़कन उस समय सुई जैसी उसे चुभी। वो ये कैसे भूल गई की पल पल अगर किसी को उसकी कमियों का एहसास दिलाया जाए, उसे ये बताया जाए की वो कितना बुरा है, कितना लापरवाह, कितना गैर जिम्मेदार, तो वो इन पे यकीन करने लगता है ?"
" छाया बेटी। आय एम् सॉरी! तुम तो इस क्लास की सबसे प्यारी लड़की हो!", मंशा सच बोल रही थी।
अचानक टॉयलेट के उस पार खामोशी छा गई। एक धीमी सी आवाज़ आई, "सच्ची? तुम मुझे बाहर निकलने के लिए झूट तो नही बोल रही?"
" नही बेटा! एकदम सच्ची!"
चिटकनी खुली। मंशा ने छाया को गले लगा लिया।
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"प्रिय मैडम,
आज छाया के गाल पे हमने उँगलियों के निशान देखे। पूछने पे पता चला की आपने उसे थप्पड़ मारा। पिछली बार जब उसके पुराने स्कूल में मास्टरनी ने ऐसा किया था तो हमने उन्हें अपनी पहुँच के दम पे स्कूल से निकलवा दिया था। हमें अपनी गलती का एहसास कभी न होता अगर आज उसने हमेशा की तरह ये न कहा होता कि गलती उसकी नही थी। आज उसने न केवल ये स्वीकारा की गलती उसी की थी बल्कि एक सवाल पूछ के हमें शर्मसार कर दिया। उसने हमसे पूछा, "पापा, थप्पड़ तो टीचर ने मारा, पर फिर सॉरी उन्होंने क्यूँ कहा ?" शायद छाया ने हमेशा अपने घर पे गुस्सा और दमन करने वाले को ही सही सिद्ध होते हुए देखा था।
हम में इतनी शक्ति तो नही कि आपसे मिल कर ये बात कह पाते इसलिए पत्र के माध्यम से आपसे माफ़ी मांग रहे हैं और आपका शुक्रिया कर रहे हैं। वैसे हम कभी भी किसी से इतनी बातें नही कहते लेकिन नजाने क्यूँ आपके बारे में सुन कर ऐसा लगा जैसे आप ये समझ जाएँगी।
हम कोशिश करेंगे कि भविष्य में आपको शिकायत के कोई अवसर प्राप्त न हों।
आपका शुक्रगुजार,
पावक मिश्रा"
पत्र को सलीके से तह कर मंशा ने उसे अलमारी के लॉकर में रख दिया जहाँ वो अपनी यादों से जुड़ी हर चीज़ रखती थी। उन चीज़ों में पावक कि ये पहली और अकेली चीज़ थी। पुरानी चिट्ठियाँ और तोहफे तो उसने कब के फेंक दिए थे। दस साल पहले ही। इसलिए क्यूँकि वो उन सब चीज़ों से बाहर आना चाहती थी। और उसे लगा भी था कि वो उन सब से बार आ गई थी। लेकिन शायद नही। क्यूँकि किसी चीज़ से पूरी तरह से बाहर शायद तभी आया जा सकता है जब मन में अतीत के सामने आने का डर न हो, अतीत के सायों और किरदारों के प्रति मन में घृणा न हो, बुरी यादों की कड़वाहट न हो और अच्छी यादें मन में न पैदा करें - मंशा ...
आज ये पत्र वो इसलिए संभाल सकी क्यूँकि उसके मन में उसे ले कर न कोई भय था, न कोई मंशा। थी तो बस एक भीनी सी मिठास, जो लम्बी बीमारी के बाद स्वस्थ होने पर होती है। ये पत्र उसे ये याद दिलाता रहेगा कि किसी के मन में अगर रावण है, तो राम भी। कि कड़वाहट कड़वाहट को नही मारती। कि कहानी का अंत सुखद हो या दुखद- ये हमारे हाथों में है। और ये कि भगवान् जो भी करता है, अच्छे के लिए करता है...