Wednesday, January 28, 2009

मंशा

मंशा - कभी कभी सोचती थी कि क्या उसकी किस्मत उसके नाम से है? या फिर उसका नाम उसके माता पिता ने उसकी आने वाली ज़िन्दगी को भाँप कर रखा था? मंशा - जैसे अधूरी सी एक इच्छा , जैसे कोई अंत-हीन कहानी।

" मिस! मिस! छाया ने विदुषी का दाँत तोड़ दिया!"
घबरा कर मंशा कॉरिडोर में पहुँची। विदुषी नाम की लड़की गला फाड़ फाड़ कर रो रही थी।
" ये क्या किया तुमने, छाया?", मंशा ने छाया से सख्ती से पुछा।
अपने हाथ में रुमाल से पकड़े हुए एक टूटे हुए दाँत को हवा में लहराते हुए छाया बोली, " मेरी कोई गलती नही है मिस। मैं तो बस उसे दिखा रही थी की दूध के दाँत को कैसे तोड़ते हैं।"
छाया की इन्ही हरकतों से मंशा झल्ला चुकी थी, " अभी चलो मेरे साथ प्रिंसिपल के ऑफिस में! इस उजड्ड लड़की पे तो उसका भी असर नही होता। नजाने कैसे घर वाले हैं। नोट पे नोट लिख कर भेजो, बेशर्मी से साइन करके वापस भी भेज देते हैं। अपने मम्मी पापा को बुला के लाना कल!"
विदुषी का रुदन सुन कर अब कॉरिडोर की सभी क्लासों के बच्चे बाहर आ गए थे। अक्सर क्लास में बैठे बोर होते हुए बच्चे इसी उम्मीद में रहते की कब छाया कुछ फसाद मचाये और हम तमाशा देखने बाहर जाएँ।
मंशा ने हर बार की तरह छाया की डायरी में उसकी शरारतों के बारे में नोट लिखा। लेकिन इस बार उसके माता पिता से स्कूल आ कर उससे मिलने का आग्रह भी किया। फिर चीखती हुई विदुषी को दवाइयों वाले कमरे में ले गई। इस तरह एक और दिन का अंत हुआ ।

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" साम , दाम, दंड , भेद! आपकी बच्ची पर तो किसी का असर नही होता ! कल ही एक बच्ची का दाँत तोड़ दिया! वो भी पक्का दाँत! उसके माँ-बाप ने कैसा बवाल मचा दिया कोई अंदाजा भी है आपको? अब मैं क्या जवाब दूँ? मेरी तो नौकरी पर ही बन आई है। सारा दिन क्या एक ही बच्ची को नज़रबंद करने का ज़िम्मा ले रखा है मैंने? आठ साल की बच्ची ने तीस-पैंतीस साल की टीचरों की हवाइयाँ उड़ा रखी हैं!", मंशा छाया की माँ, नियति , से पिछले बीस मिनटों से उसकी शिकायत कर रही थी।
और पिछले बीस मिनटों से नियति के मन में बस एक ही बात चल रही थी- "हे भगवान्। जल्दबाजी में मैं गीज़र तो खुला ही छोड़ आई। ये अगर घर आ पहुँचे तो कोहराम मचा देंगे। कल ही सब्जी में नमक ज़्यादा पड़ गया था। ये सच ही कहते हैं। मैं इतनी गैर जिम्मेदार हूँ। तभी तो छाया..."
"... तभी तो छाया को अपनी गलतियों का एहसास होगा।" कुछ सुझाव देते हुए मंशा ने अपनी बात पूरी की ।
" जी मैडम। अब आगे से ध्यान रखूंगी। अभी मैं जल्दी में हूँ। घर पे कुछ काम अधूरा ही छोड़ के आई हूँ।" नियति ने गीज़र के बारे में सोचते हुए कहा।
"इसके पापा क्यूँ नहीं आए?" मंशा ने हड़बड़ी में जाती हुई नियति से पुछा।
"वो... वो उन्हें कुछ ज़रूरी काम था । " नियति ने बहाना बनाया। वो कैसे बताती कि उसने पावक को बताया ही नहीं ? कभी भी नहीं। कि आज तक सारे नोट्स पर साइन भी उसी ने किए थे। कितना गैर जिम्मेदार समझेंगे वो उसे । वैसे भी कल सब्जी में नमक ज़्यादा पड़ गया था।

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दस सालों में कितना कुछ बदल जाता है। जितनी बार ये दुनिया गोल घूम चुकी होती है उतनी बार परिस्थितियाँ बदलती हैं, उतनी बार सपने बदलते हैं, उतनी बार अपने बदलते हैं। खुशियाँ कभी कभी त्रासदी बन जाती हैं... और त्रासदी समय के साथ एक मज़ाक! बस रह जाती है तो एक उम्मीद। क्यूँकी उम्मीद की बुनियाद पे ही तो दुनिया गोल घूमती है।
दस साल पहले बाईस साल की एक लड़की दिल्ली से रतलाम आई थीदिल्ली से रतलाम दो तरह के लोग आते हैंएक वो जो अपनी सारी ज़िन्दगी बड़े शहरों की भाग दौड़ में बिता कर अब आराम से किसी छोटे शहर में, अपना बड़ा सा घर बसाना चाहते हैंआख़िर जुड़ी हुई सविंग्स से एक बड़ा प्लाट खरीदने की उनकी क्षमता भी तो सिर्फ़ छोटे शहरों में लेने की होती है । दूसरे वो जिनकी मजबूरियाँ उन्हें खींच लाती हैं । जैसे कि बीमार माँ, या फिर ट्रान्सफर
मंशा की न तो उम्र हुई थी न ही कोई मजबूरी थी। फिर बाईस साल की कमसिन उम्र में उसका रतलाम जैसे शहर में क्या काम?
उस दिन , सड़क के किनारे , बस स्टाप की बैंच पे बैठे बैठे नजाने कितने घंटे बीत गए होंगे। घर जाती तो फिर वही आईना दीखता जिसमे वो दोनों अपनी शक्लें साथ साथ देखते और कहते "हैं न हम बिल्कुल मेड फॉर ईच अदर?" ; फिर वही बालकनी दिखती जहाँ रात रात भर बैठ कर वो उससे फ़ोन पे बातें करती। अब वो घर दोबारा कैसे जाएगी? ये सब कुछ सोच ही रही थी की सामने एक गाय दिखी। दिल्ली की सडकों पर गाय दिखना भी एक अजूबा ही है। M.C.D की वैन्स को इन बेचारियों से कुछ खासा ही लगाव है। उस दिन मानो वो गाय भी भगवान् की ही भेजी हुई थी। दुर्बल सी गाय, जिसकी पसलियाँ बाहर दीख रहीं थीं, इतनी दुर्बल होते हुए भी अपने छोटे से बछडे को दूध पिला रही थी। क्या खाती होगी जिसका ये दूध बन पाता होगा ये तो अल्लाह ही जानता है। ख़ुद अन्दर से लगभग खाली है लेकिन जितना दूध उसका बछडा खींचता उतना दूध उसके थनों में भर आता। वाकई आश्चर्यजनक है।
"क्या वाकई इतना आश्चर्यजनक है?" उसने सोचा। "क्या ये सच नही कि कुदरत ने हम सबको एक ऐसी ही ताक़त दी है? कि हम अन्दर से खाली होने के बाद भी कुछ चीज़ें दूसरों को दे सकते हैं और ऐसा करने से वो चीज़ें हम में वापस भरने लगती हैं?"
उसी दिन उसने फ़ैसला किया कि वो रतलाम जाएगी। वहाँ बच्चों को पढ़ाएगी। उन्हें शायद उसकी दिल्ली में मिली अच्छी शिक्षा से लाभ हो। इस तरह उनकी मदद करके शायद वो अपनी मदद भी कर सके।

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आज छाया स्कूल नहीं आई। "चलो! एक दिन तो शान्ति से बीतेगा!" , मंशा ने चैन कि साँस ली। पूरा दिन गुनगुनाते हुए काम किया। यहाँ तक कि बच्चों को एक पीरियड फ्री भी दे दिया। उसी फ्री पीरियड में उसने सोचा कि कुछ अधूरे काम पूरे कर ले । कल का क्या भरोसा किस नए फसाद में उलझ जाए? बड़े समय से बच्चों के रिकॉर्ड बनाने का काम वो टाल रही थी, तो सोचा कि उसी को निबटा ले। एक रजिस्टर में पाँच खाने बनाये। एक में बच्चे का, दूसरे में माता का, तीसरे में पिता का नाम, चौथे में पता, और पाँचवे में फोन नम्बर।
" नम्बर ग्यारह... छाया मिश्रा... माँ... नियति मिश्रा... पिता ... पावक मि..."
पावक मिश्रा। पिता का नाम पावक मिश्रा। मंशा को मानो साँप सूँघ गया हो।
उसने झट से नम्बर देखा-9425311709

नम्बर के आखिरी चार अंक 1709 थे । पावक अपने नंबरों के आखिरी चार अंक 1709 ही रखता था। सत्रह सितम्बर- उसका जन्मदिन।

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"ये कैसा मज़ाक है भगवान् जी! सोचा था कि वो एक बुरा सपना था जो मेरी ज़िन्दगी में होना ज़रूरी थाशायद मेरे कर्मों का फललेकिन ये भी सोचा था कि आप मेरे साथ हैंऔर मुझे उस अंधेरे से बाहर निकालेंगे जिसमे आपने मुझे शायद कुछ सिखाने के लिए धकेलाऔर आपने निकाला भीतो अब ये कौनसी नई परीक्षा? क्या मैं कई परीक्षाएं दे नहीं चुकी? क्या ज़िन्दगी भर मैं बस परीक्षाएँ ही देती रहूँगी, अपने आप को सिद्ध ही करती रहूँगी? किस लिए? एक दिन मर जाने के लिए?"
भगवान् से इस तरह संवाद करना मंशा कि आदत बन चुकी थी। उस रात उसे नींद नहीं आई। लेकिन ज़िन्दगी के बुरे से बुरे वक्त में भी सोना, उठना, खाना, तैयार होना, सब्जी वाले से दाम पे बहस करना, उसने सीख लिया था। तो सुबह होते ही उसकी आँख लग गई। नींद खुली मोबाइल फ़ोन की घंटी से, जो कि सातवीं बार बज रहा था।
"हैलो?"
"मंशा, कहाँ रह गयीं तुम? कोई ख़बर नही। सुबह से फ़ोन लगाते लगाते आफत आ गई।", प्रिंसिपल की आवाज़ दूसरी तरफ़ से गरज रही थी। "छाया ने यहाँ बवाल मचा रखा है। दो बच्चियों के टिफिन छीन कर खिड़की से बाहर फेंक दिए। जल्दी आओ!"
" बाप पर जो गई है", मंशा ने मन ही मन सोचा
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" मेरी गलती नही है मिस। सब इसी की गलती है। इससे पूछो इसने मेरा कहना क्यूँ नही माना?", छाया ने अपनी सफाई दी।
"कौनसा कहना?", मंशा ने पूछा।
" जब मैंने कहा कि अपने टिफिन से एक रोटी चम् चम् को दे दे तो दी क्यूँ नही?"
"चम् चम्?", मंशा का सर घूम रहा था।
"मिस, चम् चम् वो गन्दे, काले कुत्ते का नाम है जो नीचे गार्ड अंकल के बूथ के पास बैठता है।" विदुषी ने पुराना बदला लेने की एक कोशिश करते हुए कहा।
" छाया, सारी दुनिया तुम्हारा कहना माने ये ज़रूरी नही हैसबकी अपनी अपनी सोच हैकिसी को चम् चम् पसंद है किसी को नहीअपनी सोच दूसरों पे थोपना बंद करो! और अपनी ग़लती मानना सीखो! समझीं?", मंशा ने छाया को डाँटते हुए कहा।

और कड़वाहट भरे मन से सोचा, "तुम्हारा बाप तो कभी नही समझा"
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स्कूल जाना अब मंशा के लिए एक सज़ा सी हो गई थी। वैसे तो छाया कभी भी उसे फूटी आँख नही सुहाती थी, लेकिन जबसे पावक वाली बात का पता चला, तबसे तो मानो उसे उसकी हर हरकत में पावक नज़र आता हो। पहले तो वो उसे झल्लाहट में डांटती, लेकिन अब उसकी डांट में एक अजीब सी कटुता थी, उसके शब्दों में घृणा का डंक । कई बार वो अपने को समझाती कि छाया एक आठ साल की बच्ची है, दुष्ट ही सही, और वो बत्तीस साल की औरत। उसे अपने पर इससे ज़्यादा काबू होना चाहिए। ये सोच कर जिस दिन वो स्कूल जाती भी, छाया की हरकतों को देख अपना आपा खो बैठती। मानो २२ साल की वो लड़की बाहर आ जाती हो। २२ साल की वो लड़की भी तो बच्ची ही थी...
एक दिन छाया क्लास लेट पहुँची। जब मंशा ने लेट आने का कारण उससे पूछा तो उसने मुँह चिढ़ा कर अपनी गर्दन फेर ली। छाया के लिए ऐसा करना आम बात थी लेकिन मंशा के सब्र का घड़ा भर चुका था, और उस दिन उसने अपने अध्यापन कार्यकाल में पहली बार किसी बच्ची पर हाथ उठाया। गुस्से से तिलमिलाती मंशा तेज़ी से क्लास से बाहर स्टाफ रूम को बढ़ी। क्लास रूम से स्टाफ रूम के छोटे से सफर में उसके हाथों की कम्पन और गालों के फड़कने की वजह गुस्से से बदल कर पश्चात्ताप हो रही थी। स्टाफ रूम में घुसते ही दरवाज़ा बंद कियासौभाग्य से वहाँ कोई नही था दस सालों बाद वो फूट फूट के रो रही थी।
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" मैं पापा को बताऊंगीSSS! तुमने मुझे माराSSS! वो तुमको खूब मारेंगेSSS!", छाया अपने आप को टॉयलेट में बंद कर के ज़ोर ज़ोर से दहाड़ रही थी।
"छाया ... बेटा ... दरवाजा खोलो... तुम अच्छी बच्ची हो ना ?" मंशा ने उसे बहलाने की कोशिश की।
" मैं अच्छी बच्ची नही हूँ SSS! मैं अच्छी बच्ची नही हूँ SSS!"
" अरे नहीं बेटा। किसने कहा तुम अच्छी बच्ची नहीं हो?"
तपाक से जवाब आया, "सबने SSS... तुमने , प्रिंसिपल मैम ने, पापा ने SSS"
मंशा के दिल की एक धड़कन उस समय सुई जैसी उसे चुभी। वो ये कैसे भूल गई की पल पल अगर किसी को उसकी कमियों का एहसास दिलाया जाए, उसे ये बताया जाए की वो कितना बुरा है, कितना लापरवाह, कितना गैर जिम्मेदार, तो वो इन पे यकीन करने लगता है ?"
" छाया बेटी। आय एम् सॉरी! तुम तो इस क्लास की सबसे प्यारी लड़की हो!", मंशा सच बोल रही थी।
अचानक टॉयलेट के उस पार खामोशी छा गई। एक धीमी सी आवाज़ आई, "सच्ची? तुम मुझे बाहर निकलने के लिए झूट तो नही बोल रही?"
" नही बेटा! एकदम सच्ची!"
चिटकनी खुली। मंशा ने छाया को गले लगा लिया।

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"प्रिय मैडम,
आज छाया के गाल पे हमने उँगलियों के निशान देखे। पूछने पे पता चला की आपने उसे थप्पड़ मारा। पिछली बार जब उसके पुराने स्कूल में मास्टरनी ने ऐसा किया था तो हमने उन्हें अपनी पहुँच के दम पे स्कूल से निकलवा दिया था। हमें अपनी गलती का एहसास कभी न होता अगर आज उसने हमेशा की तरह ये न कहा होता कि गलती उसकी नही थी। आज उसने न केवल ये स्वीकारा की गलती उसी की थी बल्कि एक सवाल पूछ के हमें शर्मसार कर दिया। उसने हमसे पूछा, "पापा, थप्पड़ तो टीचर ने मारा, पर फिर सॉरी उन्होंने क्यूँ कहा ?" शायद छाया ने हमेशा अपने घर पे गुस्सा और दमन करने वाले को ही सही सिद्ध होते हुए देखा था।
हम में इतनी शक्ति तो नही कि आपसे मिल कर ये बात कह पाते इसलिए पत्र के माध्यम से आपसे माफ़ी मांग रहे हैं और आपका शुक्रिया कर रहे हैं। वैसे हम कभी भी किसी से इतनी बातें नही कहते लेकिन नजाने क्यूँ आपके बारे में सुन कर ऐसा लगा जैसे आप ये समझ जाएँगी।
हम कोशिश करेंगे कि भविष्य में आपको शिकायत के कोई अवसर प्राप्त न हों।

आपका शुक्रगुजार,
पावक मिश्रा"

पत्र को सलीके से तह कर मंशा ने उसे अलमारी के लॉकर में रख दिया जहाँ वो अपनी यादों से जुड़ी हर चीज़ रखती थी। उन चीज़ों में पावक कि ये पहली और अकेली चीज़ थी। पुरानी चिट्ठियाँ और तोहफे तो उसने कब के फेंक दिए थे। दस साल पहले ही। इसलिए क्यूँकि वो उन सब चीज़ों से बाहर आना चाहती थी। और उसे लगा भी था कि वो उन सब से बार आ गई थी। लेकिन शायद नही। क्यूँकि किसी चीज़ से पूरी तरह से बाहर शायद तभी आया जा सकता है जब मन में अतीत के सामने आने का डर न हो, अतीत के सायों और किरदारों के प्रति मन में घृणा न हो, बुरी यादों की कड़वाहट न हो और अच्छी यादें मन में न पैदा करें - मंशा ...

आज ये पत्र वो इसलिए संभाल सकी क्यूँकि उसके मन में उसे ले कर न कोई भय था, न कोई मंशा। थी तो बस एक भीनी सी मिठास, जो लम्बी बीमारी के बाद स्वस्थ होने पर होती है। ये पत्र उसे ये याद दिलाता रहेगा कि किसी के मन में अगर रावण है, तो राम भी। कि कड़वाहट कड़वाहट को नही मारती। कि कहानी का अंत सुखद हो या दुखद- ये हमारे हाथों में है। और ये कि भगवान् जो भी करता है, अच्छे के लिए करता है...





16 comments:

Proxy said...

आपकी लेखनी काफी सधी हुई है, जो भी लिखा है दिल को छू गया. बस एक बात है जो हम अपने आप को समझा नहीं पा रहे हैं. वो ये की अगर मंशा २२ साल की थी और १० साल पहले उनका दिल टूटा था तो क्या वो १२ साल की उम्र में ही रतलाम आ गयी थी?

the who said...

:) dhyaan se padhengi to pata chalega ki mansha 22 saal ki thi jab dil toota tha aur ab wo 32 saal ki hai...

kisi kaaranvash humara comment box hindi script nahi le raha... khed hai :)

Prashant Singh said...

बहुत सुंदर ! कहानी में गति है . पात्र परिचय व कथानक बड़ा ही गतिशील है ! एक दम सधे हुई लेखक के भांति नपी तुली भाषा ! हम आपकी प्रतिभा से हतप्रभ हैं .

कहानी की बात करें तो मंशा का पात्र बड़ा ही , अतीतौंमुखी प्रकट होता है ..छाया के मध्यम से वह अपने आप वर्तमान को अपने अतीत से जोड़ कर जीवन को सार्थक बनाती हुई से लगती है !
मेरी समझ कहती है के ऐसी स्थेती में मंशा कुछ समय के लिए तो खुश रहीगी परन्तु यदी शिग्रह ही उसको वर्तमान से बह्विश्य का लिंक नहीं मिला तो वह फ़िर अत्तीत में अपने जीवन के अर्थ को तलाशने लगेगी .

आश्यर्य का विषय है की ऐसी सभी कहानियों में कभी वर्तमान से बह्विश्य के लींक का जिक्र नहीं होता . उम्मीद करता हूँ की आप इस्सका एक पार्ट -२ भी लिख्नेगी . वो बड़ा रोचक होगा .

अन्तिम पंक्तियाँ मुझे स्वदेस फ़िल्म के गीत की याद दिलाती हैं


"..राम बस भक्तोंं नहीं , शत्रु के भी चिंतन में है ,
पाप तज के देख रावण , राम तेरे मन में है,
तो घर घर में है , राम हर आंगन में है ,
मन से रावण जो निकाले , राम उसके मन में है "

http://in.youtube.com/watch?v=hVCQh0a6qlQ

the who said...

कई बार वो अपने को समझाती कि छाया एक आठ साल की बच्ची है, दुष्ट ही सही, और वो बत्तीस साल की औरत। उसे अपने पर इससे ज़्यादा काबू होना चाहिए। ये सोच कर जिस दिन वो स्कूल जाती भी, छाया की हरकतों को देख अपना आपा खो बैठती। मानो २२ साल की वो लड़की बाहर आ जाती हो। २२ साल की वो लड़की भी तो बच्ची ही थी...

aapki jaankaari ke liye :)

the who said...

@ Prashant -
"आश्यर्य का विषय है की ऐसी सभी कहानियों में कभी वर्तमान से बह्विश्य के लींक का जिक्र नहीं होता . उम्मीद करता हूँ की आप इस्सका एक पार्ट -२ भी लिख्नेगी . वो बड़ा रोचक होगा ."

"aisi sabhi kahaniyon" ke baare mein to main isliye nahi jaanti kyunki apne alaawa kisi aur ko kabhi dhyaan se nahi padha :)

rahi baat part 2 ki to uska to pata nahi, lekin kahani vartman mein nahi khatm hoti balki kahaani jahaan khatm ho wo vartamaan ho jaata hai... kyunki bhavishya (follow up) ka to koi ant nahi...

Proxy said...

सही कहा आपने. त्रुटी के लिए क्षमा चाहते हैं. हमारा भी वश नहीं था, दफ्तर में नींद जो आ रही थी. तोह शायद जब ये पंक्ति आई तोह हमारी पलक झपकी होगी.

the who said...

@ Pallav- कोई बात नहीं.. कुछ दफ्तर का असर, कुछ लेखन का और कुछ एकता कपूर का, जिनके धारावाहिकों के बाद डेढ़ सौ साल की बा और बारह साल की प्रेम में नैराश्य पायी मंशा, दोनों ही सम्भव हैं :)

Lifewith13 said...

kafi achhi kahani hai.. achha pravah hai. post aur comments ke bhari bahri words dekh ke main hatprabh hun. aur Raj saheb ke liye dukhi bhi jinke liye sab greek hai. just a thot.... iska theatrical act kitna achha ban sakta hai..
actually bahut hi khub kaha comments mein:
'...lekin kahani vartman mein nahi khatm hoti balki kahaani jahaan khatm ho wo vartamaan ho jaata hai...'
kya baat hai!!
I hope abhi paathkon ko Mansha ke kai pahlun dekhne ka mauka milega.. :)

the who said...

@ lifewith13-
शुक्रिया :)
अभी ये सोच के देखा की इसका thatrical version कैसा होगा.. और सोचते सोचते मेरे इस शेख- चिल्ली दिमाग में इसका dramatization पूरा भी हो गया :)
इंशाल्लाह , किसी दिन ऐसे दर्शक मिल जाएँ जो ऐसी कहानी को देखना चाहें और अपने पर विश्वास हो जाए कि मैं इस ज़िम्मेदारी क साथ न्याय कर सकती हूँ, तो ये "मंशा" भी पूरी हो जाए...

Mithi.. said...

awesome story..and u r an awesome n amazing writer, but still it was hard for me to understand the last part of the story..i'm new to ur blog..
Regards..

the who said...

@ Mithi- Thank you for the appreciation.. This was the first time that i wrote a story in hindi and having re-read it quite a few times, i realize that there are a few imperfections in it that can make a few poins a little unclear... please let me know what exactly about it you could not understand so i can take care of these things in future... :)

Mithi.. said...

To be true i m really terrible in hindi myself, the reading part of course. There was nothing imperfect in the story for me. i was just a bit confused about the story's ending., was she really that calm n in that composed state to keep the letter.
regards
Mithi (Ragini)

Unknown said...
This comment has been removed by the author.
Unknown said...

आपकी रचना को पढ़ कर बहुत अच्छा लगा; यह किसी नौसिखिये की नहीं अपितु एक परिपक्व लेखक की कृति जान पड़ती है ...क्षमा कीजियेगा आप मुझे नहीं जानती...मैंने अपनी एक मित्र के ब्लॉग में आपके ब्लॉग का वर्णन पढ़ा... आशा है कि आप भविष्य में भी ऐसे ही लिखती रहेंगी...

the who said...

@ Mithi: sorry for the delay in response.. my internet connection has been acting weirdly.. yes, mansha was that calm and composed to keep the letter because she had finally, truly found her peace. She had been put through that last testing bit of one's having moved on- not being afraid of facing the ghosts of the past. And with a few hiccus she managed to deal with it and come out of it. So finally, the whole experience of he re-entry of her ex in her life prove to be cathartic.. hope that answers your question :)

the who said...

@ Aman: आपके comment से मुझे बहुत प्रोत्साहन मिला है. मैं ज़रूर ये कोशिश करूँगी कि आगे इस से बेहतर लिखूँ और आप chitchatni को पढें और दोबारा आने लायक समझें. :)